Saturday, March 27, 2010

DOSTI AUR MAIN

uff ye lafz dosti,kaha se shuru huyi kaise simat gayi,
kuch khaas he ye dosti ,dard se lipat gayi ye dosti ,
kuch kehte he mene nibhayi ye dosti kuch kehte tune kaha azamayi he ye dosti,
me kabhi khuskismat to na bani kyu na nibha saki ye dosti,
chot khayi to nhi par zakhm bhar na saki ye dosti,
chalte chalte yu rahe na khatm hojaye kyuna me paa saki sachi dosti ,
kam to nhi he dost mere me na dikha saki meri dosti
jabhi kamdam uthaye he mene ek khokar hi duje ko paye he,
koi na samjha mujhe kaisi he ye dosti
fir bhi kya gila kya shikayat kyuki meri bh jan he dosti,
chodke bh anshuyi nhi ho sakti khokar bh kho nhi sakti
kaisa imaan he ye dosti ,
dosti to he tumse nibhaungi jitni nibah saku janti nhi kitni he ahmiyat meri par yaade bahut bhar jaungi,
umeed he kabhi mujhe bhi dosti ka ehsaas ho mere dost bh kuch aur khaas ho ,
yu to kami nhi mujhe dosto ki sabhi he khudme kuch alag par koi to ho har wakt mera saaya bankar mere sath ho ,
mujhe samjhe mujhe jane bina kahe mujhe phechane
me bhi ankahi bate samjhlu uske har gum me uska sath du
paa lu koi dost aisa shikayate bh dur hojaye aur shikwa bhi na kar saku
ruthne manane ka silsila to ho magar khudhi manj aye agar mana na saku
me bhi us dosti ki kadar kar saku use azaadi du bandkar na rakhu
ek dost banu achi aur ek acha dost bana saku ,
pyar bhi kuch na lage jiske aage aisi dosti ki misaal bana saku......

Saturday, January 30, 2010

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कोई इंसान भी जिंदगी में इतना महत्व रख जाता हैं ,

कोई न कोई लम्हा उस इन्सान की कमी का एहसास दिलाता है

यूँ तो कोई कदम मुश्किल नही चलना ,फिर भी कई कदम चलने पर ये दिल किसी न किसीका साथ चाहता है
क्या ज़रूरत हे माना हर मौड़ तो सीधा नही मगर चलते चलते तो इंसान सिख ही जाता है,

गलती इंसान की नहीं इंसानियत की हइ हे सब कुछ भुलाकर बस इंसान फ़र्ज़ निभाता है,

खुदके के पास हो न कोई ख़ुशी फिर भी सबके गम में साथ निभाजता है .

आसू छुपाकर सबके अश्क पोछने पहुच जाता है,

ये मज़बूरी हे या आदत की जिसके लिए सब करो वो ही उसे कभी समझ नहीं पता है ,

कई देर न होजये ये डर लगता हे बस करीब हो कोई क्यों ये हर कोई चाहता है

ज़िन्दगी अकेले नहीं गुज़रती हर कोई ये ही कह जाता हे ,क्यों क्यों बस येही सवाल मेरे दिल में रह जाता हे,

इतने रिश्ते मिले हे सौगात में हमे फिर भी कोई अपनों से भी अपने का इंतज़ार रह जाता है ,

कोई तो जवाब देदे मुझे क्या करे जीना हे तनहा हमे अगर ,क्यों हर हालात हमे कुरेद कुरेद कर मनमे कई खवाईशे जगा जाते है,

बस ये वक्त कई सपने दिखता हे खुसनसीब होता हे वो जिसके पुरे हे होते हे सपने ,और जो हो बदनसीब वो तनहा ही था और तनहा ही रह जाता ,,,,,,,

( किसीको इतनी एहमियत मत दो अपनी ज़िन्दगी में की वो आपकी ज़िन्दगी से बढकर हो जाये क्या हे आपकी ज़िन्दगी भूल जाओ जीना उसे और ये वक्त भी न साथ निभाए और अगर खुशनसीबी से कोई रिश्ता मिले तो उसे खोने मत दो आखिरी सास तक उसका साथ निभाओ कयुकी हर कोई खउश्नासिब नही होता ना )

Sunday, January 24, 2010

में बदल सकती...

में बदल सकती तो अपनी किस्मत बदलती ,

में बदल सकती तो क्या क्या नहीं बदलती हर मकसत हर लम्हा बदलती जो किसीको दर्द देता हो

में बदल सकती तो कोई बुराई न रहने देती जिससे दुखता हो किसीका दिल वो बात न होने देती

में बदलती सकती तो रास्ते बदलती जिसे लगती हो मंजिल दूर वो राह करीब कर देती

में बदलती तो नजाने क्या बदलती पर हर वो शक्सियत बदलती जो बुराई दिखाती हो

में बदल सकती तो अपने ब्रहम को बदलती खुशियों के इंतजार में गुज़री रातो को बदलती

में बदल सकती तो लोगो की सोच को बदलती अनकही जुबन सी बातों को बदलती

में बदल सकती तो हर डर को बदलती अपनों के ऊपर गेरो की एहमियत को बदलती

में बदल सकती तो शयद सबसे पहले खुदको ही बदलती अपनी ही सोच को बदलती
में बदल सकती तो क्या क्या न बदलती अकेलेपन में किसीकी गुज़री रात को बदलती

में बदल सकती तो खुशनुमा हर ज़िन्दगी को करती खुद भी मुस्कुराती औरो का भी दिल; न दुखाती ,

में बदल सकती तो अपनों की उनं गलतियों को बदलती जो दर्द का रास्ता दिखाती हे ]

मत पूछो में बदल सकती तो क्या क्या बदलती हर कांटे को फूल में बदलती

सचमें अगर बदल सकती तो सबसे पेहले अपनी किस्मत को बदलती .......................

Saturday, January 9, 2010

मेरे सपनो का शहर....


एक शहर ऐसा बनाऊ जहा सिर्फ खुशियों का डेरा हो ,एक शहर ऐसा बनाऊ जहा हर वक्त सवेरा हो,

जी करता हे एक शहर ऐसा बनाऊ जहा सिर्फ प्यार ही प्यार हो ,एक शहर जहा कोई न इंतज़ार हो,

एक शहर जहा जीने की चाह हो ,एक शहर जहा ज़िन्दगी का सार हो ,

वो शहर बनाना चाहती हु मैं जहा सपनो की खुली किताब हो ,जहा हकीकत में भी जीने का जज्बात हो,

एक शहर जहा मुस्कुराती सुबह हो ,एक शहर जहा कोई न अकेली रात हो ,

एक शहर जहा पूरा हर खवाब हो ,एक शहर जहा बिना पानी की बरसात हो ,

एक शाहर जहा मासूमियत ही मासूमियत हो ,एक शाहर जहा हर बचपन आजाद हो,

एक शहर जहा सब कुछ आसान हो ,एक शाहर जहा कोई न निराश हो,

एक शहर जो अपनों का शहर हो ,एक शहर जहा खुशियों की लहर हो ,

मेरा वो शहर जहा बस अपनों का प्यार हो हा वो शहर जिसका सपना दिन रात आता है मुझे,

वो शहर बना चाहती हु मैं जहा मेरे दिल की आवाज़ पहचान सकू ,वो शहर जहा खुदसे इन्साफ कर सकू,

वो शहर जहा भीड़ में अकेली न राहू बल्कि अकेलेपन में भी महफ़िल बनालू,

वो शहर जहा सपनों की वो दुनिया हो ,जिसे में अपने रोम रोम में सजा लू,

वो शहर जहा कोइ न पराया हो ,वो शहर जहा अपनों का ही साया हो,

वो शहर जहा में सबको अपना बनालू ,वो शहर जहा में सबकी दर्द मिटा दू,

वो शहर जहा में सबके अश्क शिन लू ,एक शहर जहा सबको मुस्कुराना सिखा दू ,

एक शहर जहा मैं सारी खुशिया अपनी बाहों में समेत सकू,एक शहर जहा मैं मैं बनके रह सकू,

बस वो शहर ही तो बनाना चाहती हु मैं जहा कोइ न उदासी हो ,न कोइ शिकवा ,न शिकायत न किसी की आँखों में नामी हो ,

बस मेरे सपनों का शहर बनाना चाहती हु ,हाँ बस ऐसा ही शहर बनाना चाहती हु मैं......



Wednesday, December 30, 2009

क्या जानू कौन हु मैं..? 13/12/09

क्या जानू कौन हु मैं?
किस माला की डोर हु मैं?
अपनों के बिच में गैर सी लगती हु ,बारिश में भी पतझड़ सी लगती हु ,
हर सुबह में रात का अँधेरा देखती हु ,भरी किताब में एक कोरा कागज़ हु मैं,
चलती साँसों में मौत का एहसास सी लगती हु,बेरंग हे दुनिया मेरी बेजुबा हे हर लफ्ज़ मेरा,
दिल से धड़कने गूम सी गयी हे, नहीं जानती हु कौन हु मैं?
किस पहली का जवाब हु मैं,किस रात का ख्वाब हु मैं, क्या जानू कौन हु मैं?
हर ख़ुशी में दर्द सी लगती हु,सबकी आँखों में अश्क सी लगती हु,
अमृत में भी ज़हर सी लगती हु,हारे हुए किसी खेल सी लगती हु,
में कुछ भी नहीं बस मिटटी के एक ढेर सी लगती हु,क्या जानू कौन हु मैं?
क्वाबो में टुटा अकेला ख्वाब हु मैं,नहीं कोई सहारा मेरा एक दरिया शोर हु मैं,
ना कोई उम्मीद हे मुझसे , ना कोई विश्वास हे मुझपे,
टुटा हर विश्वास हु मैं,बिखरा कोई जज़्बात हु मैं,
हर ज़ख़्म हे मुझसे ही शायद ,कट गए हे पंख मेरे तिनका- तिनका भिखर सी गयी हु मैं,
बचा नहीं कुछ मेरे पास अब ,नहीं जानती कौन हु मैं....?

Sunday, December 27, 2009

क्यों ...

जब में अकेली चलती हु राहो में क्यों कोई हाथ मुझे थामकर आगे नही बदाता ,

क्यों जब में दुन्द्ती हु कोई सहारा तो हर कोई मुझे तनहा हे छोड़ जाता,

जब ये दिल माननेलगता हे किसीको अपना तो वो इस दिल को हे तोड़ जाता ,

क्यों जब हम किसी क करीब हो जाते हे तो वो हमसेइतनी दूर हे चला जाता हे,

आदत तो हे इन गुमो को सरहाने की मगर फिर भी हरबार ये दर्द नया सा लगता हे,

क्यों हर कोई अपना बनकर कभी कोई रिश्ता ही नही निभाता.......

Saturday, December 26, 2009

अपनो के लिए ...

  • अपने रुठेंगे तो मना लेंगे हम ,होगी खता तो सजा लेंगे हम ,
  • पर कदम जो बढेंगे आगे फिर कैसे पीछे हतालेंगे हम?
  • होगा जो अँधेरा तो दिया जला लेंगे हम ,मुस्कराहट के पीछे आसू छुपा लेंगे हम,
  • पर जब दर्द होगा अपनों को हमारे कारन तो ये कैसे सहेंगे हम?
  • लगे की चोट तो मरहम लागा देंगे हम,होंगे कांटे किसी के कदमो में तो खुदको भी बिशा देंगे हम,
  • पर अगर हम ही कांटा बनजाये किसी की राह का तो कैसे हटेंगे हम ,
  • यु to हर ज़ख़्म युही सह लेंगे हम,अपनों की आँखों से आसू पोच लेंगे हम,
  • पर अगर हम ही आँखों में खटकने लगे किसीकी तिनका बनकर तो कैसे निकालेंगे हम,
  • हर मौसम का रुख नही बदल सकते हम ,बस खुद हर मौसम में घुल जायेंगे ,
  • सबके लबो की हसी महसूस करके खुदको भी हँसा लेंगे हम ,
  • मिलजाए अपनों को ख़ुशी हमसे तो मौत को भी ख़ुशी से गले लगा लेंगे हम.....